Wednesday, May 21, 2014

जिस वर्ष हमारा बैच पास-आउट (1968) हुआ उस वर्ष बिहार में पशु चिकित्सकों को नियुक्ति नहीं मिली। यह बेकारी का समय था। फलस्वरूप हमें रोज़गार के लिए अन्य राज्यों में जाना पड़ा। नागालैंड, त्रिपुरा,अंडमान निकोबार , केरल जहां भी मौका मिला, गए। मुझे भी UP के एक सुदूर पशु चित्सालय में काम मिल गया.
साधारण तौर पर उन दिनों UP के वेटरिनरी डिस्पेंसरियों में पशुधन सहायकों की नियुक्ति होती थी जिन्हे ADO (AH) कहा जाता था । कई अच्छे पशु अस्पतालों में डिग्री धारी पशु चिकित्सक भी थे , जिन्हे VAS ( Veterinar Assistant Surgeon ) कहा जाता था। जब मेरी नियुक्ति हुईं तो स्थानीय अखबारों में खबर छपी कि सुनौली में "पशु" डाक्टर की नियुक्ति हो गयी है. ब्लॉक लेवल पर यह पद BDO के समकक्ष था और इन्हे लोग इज़ज़त से देखते थे।
जब अगले दिन मैं पशु-चिकित्सालय में बैठा था तो एक किसान जी अपने बच्चे के साथ अपनी बीमार गाय दिखाने के लिए आ गए। जब वह गाय को खूटे में बाँध रहा था तो बच्चे ने दरवाजे में छुपते हुए मुझे झाँख कर देखा और जोर अपने पापा को बताया' " बाबू जी, ई तो आदमी लगत है …"
उसे बड़ी निराशा हुयी होगी, उसने सोचा था कि कोई चार पैर वाला गले से आला लटकाये उसे कुर्सी पर बैठा मिलेगा। 
किस्सा जो रेल्वे गार्ड ने सुनाया
मैं ट्रेन के गार्ड के साथ यात्रा कर रह था - उन्ही के ब्रेक वान में। मेरे दोनों कुत्ते - डेविल (लेब्राडोर) और छोटू (पोम) ब्रेकवान के तंग क्यूबिकल में बन्द थे और भौंके जा रहे थे। मेरी पत्नी अन्य स्थान में फर्स्ट क्लास मे बैठीं थी ; हालाँकि मेरे पास भी फर्स्ट क्लास टिकेट था। हम लोग हिमसागर एक्सप्रेस द्वारा फरीदाबाद से कोचीन जा रहे थे और साथे मे अपने कुत्तोँ को भी ले जा रहे थे। गार्ड साहब को कुत्तों से काफी डर लगता था सो मुझे भी कुछ देर के लिये उनके साथ चलने के लिये कहा। मेरी आवाज सुन कर शायद कुत्तों को भी थोडी राहत मिलेंगी सोच कर मैने उनकी बात मान ली। रास्ते में उन्होंने कुत्तों से साथ की गयी एक यात्रा का अनुभव सुनाया :
"एक बार एक फौजी साहब ने अपना कुत्ता बुक किया. बड़ा ही भयानक कुत्ता था काला यमराज जैसा रँग , अँगारे जैसी दहकती लाल लाल आँखें, शेर जैसा बडा सा सर। देख कर ही जान निकल जाती थी। कुत्तों वाली 'केज' में मुश्क़िल से समा पा रहा था। साहब ने कुछ कुत्तें वाली बिस्कुट दे कर कहा कि बीच-बीच मे डाल देना। पानी का एक डब्बा भी रख दिया। साहब अपने कोच में चले गये।
हुआ यूं कि दो तीन घंटे बाद जब गाड़ी किसी जंक्शन पर रुकी तो पता नही कैसे कुत्ता आपने केज से बाहर आ गया और ट्रैन से बाहर कूद गया.…डर के मारे किसी ने उसे पकड़ने की भी कोशिश नहीं की। गार्ड साहब की तो जान ही चली गयी। कुत्ते की बुकिंग की आर आर (RR) उनके पास था जिसे अगले गार्ड को कुत्ते के साथ हस्तांतरण करना था। फिर बुकिंग की रसीद ले कर अन्तिम स्टेशन पर मालिक को कुत्ता लौटाना भी था। गाडी छोड़ कर कुत्ते के पीछे भाग भी नहीं सकते। तब तक गाडी भी छूट गयी। कुत्ता उसी स्टेशन पर रह गया।
गार्ड साहब ने अगले स्टॉप (जो दो घंटे बाद आना था) के स्टेशन मास्टर को फ़ोन किया और अपनी कहानी बताई और कहा कि एक काला कुत्ता अर्जेंट पकड कर मंगवाईए। जब गाडी अगले स्टॉप पर पहुँची तो स्टेशन के कुलियों ने कुत्ते का इन्तज़ाम कर दिया था। आनन फानन उसे साहब के कुत्ते के स्थान पर पदस्थापित कर दिया गया। गार्ड साहब की जान मे जान आयी। कुलियों को भी पुरष्कृत कर दिए गया।
जब गाड़ी अपने डेस्टिनेशन स्टेशन पर पहूंची तो दो तीन गार्ड बदल चुके थे। साहब जब अपना कुत्ता लेने बुकिंग आफिस पहुंचे तो उन्हे अपने जीवन का सबसे बड़ा धक्का लगा होगा। बुकिंग क्लर्क से भी कॉफी arguments हुई होगी l पर इंडियन रेलवे सब का जवाब आसानी से दे कर अपना पल्लू झाड़ दिया होगा ."
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Monday, September 3, 2012



 इमानदारी 



    बात  1952  या 1953 की  हो सकती है.मेरी उम्र कोई सात साल की होगी , हमलोग रांची  के मोराबादी में 

रहते थे  मोराबादी से  लगभग  तीन  मील दूर स्कूल में पैदल ही पढने जाया करते थे मोराबादी से 

 लगभग तीन   मील दूर  के  स्कूल में पैदल पढने जाया करते थे. मेरे साथ मेरी  ही कक्षा में पढने वाला  

ननकू भी हुआ करता था.मोरहाबादी में जहाँ आज-कल स्टेडियम है, उनदिनों कुछ नहीं था ,बड़ा


 सा कई एकड़  मैदान था. रांची कालेज भी नहीं बना था .हम दोनों अपना बस्ता लटकाएपत्थरों को 

ठोकर मारते बातें करते-करते मोराबादी मैदान पार कर रांची कोर्ट  के परिसर होते हुए भुतहा तालाब  के पास पहुंचते.   तालाब   में  चिकने पत्थर फिसलातेतालाब   से कुछ दूर पर ही स्कूल था.यह तालाब अब  जयपालसिंह  स्टेडियम  है . वापसी में भी हमारा  यही  कार्य-क्रम होतावापसी  के समय कोर्ट के परिसर में

 मजमा लगा होता थाअक्सर हम मदारियों और जादू वालों का खेल भी देख लेतेकभी-कभी देर होने पर घर 

पहुँच कर माँ की डांट  खानी पड़ती .स्कूल जाते वक्त माँ दो पैसे दिया करती थी- जिसे आज पॉकेट मणी  बोलते 

है. यह काफी हुआ करता था .हम इस से  भुने हुए चने या स्कूल के पास बिकने वाले बेर,कमरख,पनीले  या 

अमरुद के फल खरीदते  थे या खेलने वाली चीजें जैसे  कांच की गोलिया या नाचने वाला लट्टू  ले लिया करते 

थे .

 पुराने समय के पैसों को शायद आप भूल गए होंगे. नयी पीढी ने तो शायद देखा भी  नहीं होगा. एक रुपये में सोलह आने होते थे -  एक आने में  चार पैसे हुआ करते थे. मेरी माता जी के समय में तो एक आने में छह  पाई का हिसाब था.    वे   बताती थी . उन दिनों दो पैसे और दो  आने के सिक्के चकोर हुआ करते थे. बाकी सारे सिक्के -- पैसा, आना, चवन्नी या चार आने, अट्ठन्नी या आठ आने और रुपयों के सिक्के गोल थे. दो पैसा, आना और दो आनों  के सिक्के  पीले  रंग और सफ़ेद रंग के थे.  बाद में पीले सिक्कों का प्रचलन बंद हो गया .

 उन्ही दिनों की बात है.   कहीं से हमें एक पीली दुअन्नी मिल गयी. .इस खोटे सिक्के को किस तरह चलाया जाय हम दोनों ने  इस पर काफी सोच- विचार किया. स्कूल के पास फल बेचने वाली बुढ़िया, नुक्कड़ के मोटे हलवाई, कंचे बेचने वाला लड़का  --.  काफी सोचने पर भी ऐसा कोई नजर में नहीं था जो आँख बंद कर कबूल कर लेता. पर हम भी हिम्मत हारने वालों में नहीं थे.

मोराबादी मैदान के आखीर  में एक पेड़ के नीचे एक बूढा  बैठ कर चने भूनता था. हमने कई बार उसकी दूकान से दो पैसों का  गरमा-गरम  चने खरीदे थे, जिन्हें फांकते हुए  हम अपनी मैदान की यात्रा तय  करते थे .   हमें यह बूढा सब से  अच्छा शिकार लगा. उसकी आँखे कमजोर थी और उसमे बहुत शक्ति नहीं थी कि हमसे झगडा कर पाता.   . हमने उसे ठगने की तय्यारी शुरू कर दी . सबसे पहले उस पीली दुअन्नी को राख  से  मल-मल  कर सोने सा  चमकाया .सुबह स्कूल जाते समय ही हम  उसकी दुकान पर गए  और एक आने का चना खरीदा. हमारा दिल जोर-ज़ोर से धड़कने लगा था, जैसे कोई बहुत बड़ी चोरी कर रहे हो . हमने उस से जल्दी जल्दी चने   देने के लिए बार बार कहा -  'स्कूल के लिए देर न हो जाय'..  उस ने अपनी झुकी कमर सीधी की और चने दे दिए.  पीली दुअन्नी उसने बिना देखे ही अपने गल्ले में डाल दिया और एक खरी एकन्नी  
हमें वापस कर दी . हम अपनी चालाकी पर बहुत खुश थे , हमने आखिर   पीली  दुअन्नी  चला ही दिया . पैसे ले कर हम जल्दी जल्दी आगे बढ़ गए . डर था कि  बूढा  फिर से गल्ला देख कर हमें बुला न दे.

हम करीब सौ गज ही  गए  होंगे कि पीछे से बूढ़े  की आवाज आने लगी. वो हमें जोर जोर बुला रहा था और हाथों से इशारे भी  कर रहा था .शायद  चोरी पकड़ी गयी थी . हमारी हालत ख़राब होने लगी.. काटो तो खून नहीं .. बूढा धीरे-धीरे चल कर हमारी ओर आ रहा था .. उसने नजदीक आकर कहा,  ' बेटे, ये लो , तुम जब झुक कर चने ले रहे थे तो रुपये तुम्हारी जेब से गिर गए थे. शायद फीस के पैसे होंगे. संभाल कर रखना चाहिए '.  उसने एक रुपयों के दो सिक्के और एक 
अट्ठन्नी हमें  दिया. सचमुच ये स्कूल फीस  के पैसे थे जो मेरी जेब से चने लेते समय गिर पड़े थे और जिसे हमने देखा नहीं था 

हमारी हालत अब बिलकुल खराब हो गयी थी   सच- मुच  काटो तो खून नही. समझ नहीं  पा  रहा  था   कि क्या करना चाहिए  ...?  ?  ?.  .