इमानदारी
बात 1952 या 1953 की हो सकती है.मेरी उम्र कोई सात साल की होगी , हमलोग रांची के मोराबादी में
रहते थे . मोराबादी से लगभग
तीन मील दूर स्कूल में पैदल ही पढने जाया करते थे मोराबादी से
लगभग
तीन मील दूर के स्कूल में पैदल पढने जाया करते थे. मेरे साथ मेरी ही कक्षा में पढने वाला
ननकू भी हुआ करता था.मोरहाबादी में जहाँ आज-कल स्टेडियम है, उनदिनों कुछ नहीं था ,बड़ा
सा कई एकड़ मैदान था. रांची कालेज भी नहीं बना था .हम दोनों अपना बस्ता लटकाए, पत्थरों को
ठोकर मारते बातें करते-करते मोराबादी मैदान पार कर रांची कोर्ट के परिसर होते हुए भुतहा तालाब के पास पहुंचते. तालाब में चिकने पत्थर फिसलाते. तालाब से कुछ दूर पर ही स्कूल था.यह तालाब अब जयपालसिंह स्टेडियम है . वापसी में भी हमारा यही कार्य-क्रम होता. वापसी के समय कोर्ट के परिसर में
मजमा लगा होता था. अक्सर हम मदारियों और जादू वालों का खेल भी देख लेते. कभी-कभी देर होने पर घर
पहुँच कर माँ की डांट खानी पड़ती .स्कूल जाते वक्त माँ दो पैसे दिया करती थी- जिसे आज पॉकेट मणी बोलते
है. यह काफी हुआ करता था .हम इस से भुने हुए चने या स्कूल के पास बिकने वाले बेर,कमरख,पनीले या
अमरुद के फल खरीदते थे या खेलने वाली चीजें जैसे कांच की गोलिया या नाचने वाला लट्टू ले लिया करते
थे .
पुराने समय के पैसों को शायद आप भूल गए होंगे. नयी पीढी ने तो शायद देखा भी नहीं होगा. एक रुपये में सोलह आने होते थे - एक आने में चार पैसे हुआ करते थे. मेरी माता जी के समय में तो एक आने में छह पाई का हिसाब था.
वे बताती थी . उन दिनों दो पैसे और दो आने के सिक्के चकोर हुआ करते थे. बाकी सारे सिक्के -- पैसा, आना, चवन्नी या चार आने, अट्ठन्नी या आठ आने और रुपयों के सिक्के गोल थे. दो पैसा, आना और दो आनों के सिक्के पीले रंग और सफ़ेद रंग के थे. बाद में पीले सिक्कों का प्रचलन बंद हो गया .
उन्ही दिनों की बात है. कहीं से हमें एक पीली दुअन्नी मिल गयी. .इस खोटे सिक्के को किस तरह चलाया जाय हम दोनों ने इस पर काफी सोच- विचार किया. स्कूल के पास फल बेचने वाली बुढ़िया, नुक्कड़ के मोटे हलवाई, कंचे बेचने वाला लड़का --. काफी सोचने पर भी ऐसा कोई नजर में नहीं था जो आँख बंद कर कबूल कर लेता. पर हम भी हिम्मत हारने वालों में नहीं थे.
मोराबादी मैदान के आखीर में एक पेड़ के नीचे एक बूढा बैठ कर चने भूनता था. हमने कई बार उसकी दूकान से दो पैसों का गरमा-गरम चने खरीदे थे, जिन्हें फांकते हुए हम अपनी मैदान की यात्रा तय करते थे . हमें यह बूढा सब से अच्छा शिकार लगा. उसकी आँखे कमजोर थी और उसमे बहुत शक्ति नहीं थी कि हमसे झगडा कर पाता. . हमने उसे ठगने की तय्यारी शुरू कर दी . सबसे पहले उस पीली दुअन्नी को राख से मल-मल कर सोने सा चमकाया .सुबह स्कूल जाते समय ही हम उसकी दुकान पर गए और एक आने का चना खरीदा. हमारा दिल जोर-ज़ोर से धड़कने लगा था, जैसे कोई बहुत बड़ी चोरी कर रहे हो . हमने उस से जल्दी जल्दी चने देने के लिए बार बार कहा - 'स्कूल के लिए देर न हो जाय'.. उस ने अपनी झुकी कमर सीधी की और चने दे दिए. पीली दुअन्नी उसने बिना देखे ही अपने गल्ले में डाल दिया और एक खरी एकन्नी
हमें वापस कर दी . हम अपनी चालाकी पर बहुत खुश थे , हमने आखिर
पीली दुअन्नी
चला ही दिया . पैसे ले कर हम जल्दी जल्दी आगे बढ़ गए . डर था कि बूढा फिर से गल्ला देख कर हमें बुला न दे.
हम करीब सौ गज ही गए होंगे कि पीछे से बूढ़े की आवाज आने लगी. वो हमें जोर जोर बुला रहा था और हाथों से इशारे भी कर रहा था .शायद चोरी पकड़ी गयी थी . हमारी हालत ख़राब होने लगी.. काटो तो खून नहीं .. बूढा धीरे-धीरे चल कर हमारी ओर आ रहा था .. उसने नजदीक आकर कहा, ' बेटे, ये लो , तुम जब झुक कर चने ले रहे थे तो रुपये तुम्हारी जेब से गिर गए थे. शायद फीस के पैसे होंगे. संभाल कर रखना चाहिए '. उसने एक रुपयों के दो सिक्के और एक
अट्ठन्नी हमें दिया. सचमुच ये स्कूल फीस के पैसे थे जो मेरी जेब से चने लेते समय गिर पड़े थे और जिसे हमने देखा नहीं था
हमारी हालत अब बिलकुल खराब हो गयी थी सच-
मुच काटो तो खून नही. समझ नहीं पा रहा
था कि क्या करना चाहिए ...? ? ?. .